यह जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं,
कभी सबा को कभी नामबर को देखते हैं,
वो आये घर में हमारे खुदा की कुदरत है,
कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं।
बेगाने होते लोग देखे,
अजनबी होता शहर देखा
हर इंसान को यहाँ,
मैंने खुद से ही बेखबर देखा।रोते हुए नयन देखे,
मुस्कुराता हुआ अधर देखा
गैरों के हाथों में मरहम,
अपनों के हाथों…
शुक्रिया ज़िन्दगी...जीने का हुनर सिखा दिया,
कैसे बदलते हैं लोग चंद कागज़ के टुकड़ो ने बता दिया,
अपने परायों की पहचान को आसान बना दिया,
शुक्रिया ऐ ज़िन्दगी जीने का हुनर सिखा दिया।
बरसों बाद न जाने क्या समां होगा,
हमसब दोस्तों में न जानें कौन कहाँ होगा,
अगर मिलना हुआ तो मिलेंगें ख्वाबों में,
जैसे सूखे हुये गुलाब मिलते हैं किताबों में।